देश

महाराष्ट्र की राजनीति में शाह और पवार के बीच शह-मात का खेल, जानें कौन बना मोहरा

महाराष्ट्र की राजनीति में शह-मात का खेल शाह और पवार का खेल भी है. भले ही सत्ता के शीर्ष पर बादशाह के तौर पर उद्धव की बादशाहत दांव पर है, लेकिन सियासत की शतरंज पर बाजी और कोई खेल रहा है. चुनाव परिणाम आए थे महाराष्ट्र की सियासत में नई बाजी की शुरुआत हो गई. चुनाव में बीजेपी-शिवसेना गठबंधन ने साफ तौर पर विजय हासिल की थी और किसी को भी सरकार बनने में संदेह नहीं था, लेकिन शिवसेना ने एक बड़ी मांग के साथ इस गठबंधन की राह में कांटे बो दिए. एकदम तो किसी की समझ में नहीं आया कि आखिर उद्धव की इस मांग का कारण क्या है?

बीजेपी भी जीत के जश्न में उमड़ आई इस परेशानी का कारण अचानक नहीं समझी लेकिन जैसे ही शरद पवार का चेहरा उभर कर सामने आया तो दिल्ली में बैठे खिलाड़ी भी चौंक उठे. शरद पवार ने बीजेपी को मात देने के लिए महाराष्ट्र की राजनीति के पूरब और पश्चिम को एक साथ लाकर खड़ा कर दिया. शरद पवार ने महाविकास अघाड़ी बनाकर शिवसेना को कांग्रेस के साथ मिलाकर एकदम अकल्पनीय गठबंधन को खड़ा कर दिया.

शुरुआत में उद्धव ने मुख्यमंत्री पद के लिए जो जिद पकड़ी थी वो भी शरद पवार के दिमाग से निकली थी. क्योंकि शुरुआती गठबंधन में एकनाथ शिंदे के तौर पर शिवसेना ने मुख्यमंत्री पद मांगा था, लेकिन शरद पवार का मानना था कि उद्धव के अलावा कोई दूसरा शिवसैनिक इस उलटबांसी के बाद वोटर को एकजुट नहीं रख पाएगा. उनका वोट बैंक जो इस कदम से ठगा सा महसूस कर रहा था वो उद्धव के अलावा किसी को भी स्वीकार नहीं करेगा और हो सकता है कि वो पार्टी से बाहर निकल जाएं. इसी सलाह के बाद उद्धव ने सीएम पद के लिए अपना और सिर्फ अपना नाम आगे किया.

बीजेपी जनता के मैदान हर हासिल जीत को इतनी आसानी से हार में नहीं बदलने देना चाहती थी, इसीलिए बीजेपी ने ईंट का जवाब पत्थर से देने के लिए शरद पवार के सबसे विश्वसनीय और राजनीतिक तौर पर उनके उत्तराधिकारी अजीत पवार पर दांव लगाकर सत्ता की शतरंज में जीत हासिल करने की कोशिश की. अमित शाह जिन्होंने फडणवीस पर दांव लगाकर इस जीत की नींव रखी थी वो जीत को हार में नहीं बदलना चाहते थे. लिहाजा अजीत पवार को आगे रख कर शरद पवार को बड़ी मात देने की कोशिश को अमली जामा पहनाया जा रहा था, लेकिन शरद पवार अपने लोगों को साथ रखने में अभी तक लगातार कामयाब रहे हैं और कहा जाता है कि उनको अपने हर आदमी की मूवमेंट मालूम होती है.

ऐसे में अजीत पवार को आगे लाकर बीजेपी ने जिस खेल की शुरुआत की थी दरअसल वो शरद पवार का सही से आंकलन करने में चूक गई थी. पवार पहले दिन से ही अजीत को कंट्रोल कर रहे थे और इस तरह से बीजेपी की हर चाल उनके द्वारा तय किए गए मोहरों और खानों में हो रही थी. और आखिर में जब अजीत पवार ने बीजेपी से पल्ला झाड़ा तब बीजेपी को शायद ही इस तरह की राजनीतिक शर्मिंदगी उठानी पड़ी हो. खेल में शुरुआत से ही लग रहा था कि शरद पवार ने इस खेल को इस तरह से शुरू किया कि अगर किसी को नुकसान होना हो तो सिर्फ बीजेपी और शिवसेना का हो बाकि दोनों पार्टियों को किसी तरह की कोई इंवेस्टमेंट की जरूरत नहीं थी.

शिवसेना ने अपनी स्थापना के बाद से हिंदुत्व के जिस मुद्दे पर राजनीति को बनाए रखा था वो पूरी तरह से छिन्न-भिन्न हो गया. और बीजेपी जिसने बहुत दिन तक अपनी राजनीति को कुछ हिस्से में शिवसेना के हिस्से में छोड़ दिया था उसको भी अचानक कुछ समझ में नहीं आया. लेकिन बीजेपी ने इस हार को भुलाया नहीं. अमित शाह ने पूरी तरह से फडणवीस के हाथ राज्य की कमान दिए रखी. यहां तक कि बीजेपी की मराठा ल़ॉबी ने बार-बार फडणवीस को लेकर सवाल उठाने की कोशिश की, लेकिन हाईकमान ने अपना विश्वास देवेंद्र पर बनाए रखा.

बीजेपी लगातार शिवसेना की हिंदुत्व विचारधारा से समझौते की लाइन पर हमला करती रही. उसने अपनी पूरी रणनीति शिवसेना के तुष्टिकरण के इर्द-गिर्द बुन दी. हालांकि, महाविकास अघाड़ी के सहारे सत्ता में आसीन हुए उद्धव ने भी इस काम में एक तरह से अनजाने में बीजेपी की मदद की. नुपूर शर्मा वाला मामला हो या फिर शरद पवार के खिलाफ महज टिप्पणियों पर जेल के अंदर भेजने वाले मुद्दों ने शिवसेना के मूल वोटर्स के अंदर काफी सवाल खड़े कर दिए. इस दौरान हुए उपचुनावों के रिजल्ट बीजेपी को दिलासा देते रहे कि वो सही लाइन पर जा रही है.

अमरावती की सांसद नवनीत और उसके पति रवि राणा की हनुमान चालीसा के नाम पर जिस तरह से शिवसैनिकों और सरकार का रिएक्शन रहा उसने बीजेपी को ही ताकत दी और शिवसेना के विधायकों के सामने ये सवाल जरूर रख दिया कि शिवसेना का मूल वोटर अब हिंदुत्व के मुद्दे पर उस पर यकीन नहीं कर सकता है और मराठी मूल के आधार पर सिर्फ कोंकण और मुंबई में शिवसेना के पास कुछ वोटर दिखता है, लेकिन इन इलाकों में भी हिंदुत्व के मुद्दे पर साथ आने वाला वोटर उससे अलग होकर बैठ गया.

ऐसे में बीजेपी लगातार एकनाथ शिंदे को साध रही थी. ठाणे के एकनाथ शिवसेना में एक ऐसे नेता के तौर पर उभरे जो शिवसैनिकों को मदद करता है और ताकतवर नेता के तौर रहने वाली इमेज बनी रही. और बीजेपी ने धीरे-धीरे उनके साथ दोस्ती बनानी शुरू कर दी, लेकिन ये सब इतना चुपचाप हो रहा था कि रोज बोलने के लिए पहचाने गए संजय राउत बीजेपी की पदचाप सुन नहीं पा रहे थे. राज्यसभा चुनावों के मौके पर बीजेपी ने अपने इन नए बने दोस्तों की पहचान शुरू की.

चुनावी रिजल्ट के बाद शिवसेना को समझ में आया कि कुछ नया हो रहा है और शरद पवार ने भी इस पर उद्धव से बातचीत कर मामले की तह में जाने की कोशिश की, लेकिन तब तक फडणवीस अपने पत्तों को अच्छे से फेंट चुके थे. पहले मात खा चुकी बीजेपी इस बार बिना किसी ऐश्योंरेस के आगे बढ़ना नहीं चाहती थी. अमित शाह लगातार इस मामले में नजर बनाए हुए थे. पार्टी में तैयार हुआ और फिर विधानपरिषद के चुनावों में फाइनल चेक किया गया. बीजेपी को मिले 17 मतों ने ये साबित कर दिया कि एकनाथ सही मोहरा है जो शरद पवार को मात देने के लिए माकूल है. इसके बाद योग दिवस की तैयारियों का बड़ा प्रचार किया गया.

शरद पवार और उनकी पार्टी विधानपरिषद के चुनावों में फिर से कांग्रेस की हार के कारणों को देखने में जुटी थी और देश योग दिवस देखने में जुटा था और अमित शाह अपने घर से शरद को मात देने की आखिरी चाल चलने में जुटे थे. और इस हार में अभी भी आखिरी चाल बाकि है, क्योंकि गृह मंत्रालय महाराष्ट्र में एनसीपी पर है. ऐसे में इतनी बड़ी संख्या में राज्य छोड़कर जा रहे विधायकों के बारे में कोई जानकारी उसको नहीं मिली ये बात आसानी से हज्म नहीं होती है. शरद पवार ने अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस में साफ कर दिया है कि ये बीजेपी का अंदरुनी मामला है.

Related Articles

Back to top button