जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला आज चार बैरिकेड्स तोड़कर और बाड़ की दीवार फांदकर, भारी प्रशासनिक प्रतिबंधों के बावजूद, 13 जुलाई 1931 के शहीदों को श्रद्धांजलि देने के लिए श्रीनगर के नक्शबंद साहिब दरगाह में मौजूद मज़ार-ए-शुहादा (शहीदों का कब्रिस्तान) पहुंचे. उमर ने दावा किया कि बीते दिन बंद दरवाजों और भारी पुलिस बल की तैनाती की वजह से उन्हें मजार पर जाने से रोक दिया गया था.
दीवार फांदकर शहीदों को दी श्रद्धांजलि
आज सुरक्षा और प्रशासन को सूचित किए बिना वह जम्मू-कश्मीर नेशनल कॉन्फ्रेंस (जेकेएनसी) के अध्यक्ष डॉ फारूक अब्दुल्ला और उपमुख्यमंत्री सुरिंदर कुमार चौधरी समेत सीनियर नेताओं के साथ कब्रिस्तान पहुचे. उमर ने दावा किया कि पुलिस और सीआरपीएफ ने उन्हें नौहाटा चौक पर बीच रास्ते में ही रोक लिया और सड़क पर पुलिस बंकर लगा दिया, लेकिन वे जबरन कब्रिस्तान की तरफ बढ़े. उन्होंने बताया कि दरगाह के दरवाजे बंद हैं लेकिन वह अपने अन्य नेताओं के साथ दरगाह की ग्रिल वाली दीवार फांदकर अंदर गए और फातिहा पढ़कर 1931 के शहीदों को श्रद्धांजलि दी.
‘फातिहा पढ़ने की अनुमति नहीं दी’
कब्रिस्तान के बाहर मीडिया को दिए अपने बयान में अब्दुल्ला ने अपने सामने आई मुश्किलों के बारे बताते हुए कहा,’हमें कल यहां आकर फातिहा पढ़ने की अनुमति नहीं दी गई. सुबह-सुबह सभी को अपने घरों में ही रखा गया. मैंने कंट्रोल रूम से संपर्क किया और वहां जाकर फातिहा पढ़ने की ख्वाहिश जाहिर की और कुछ ही मिनटों में मेरे दरवाजे के सामने बंकर लगा दिया गया जो रात 12 बजे तक वहीं रहा.’
‘मेरे गेट के सामने बंकर लगा दिया’
उमर ने पत्रकारों से कहा,’यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि जो लोग दावा करते हैं कि उनका जिम्मेदारी सिर्फ कानून-व्यवस्था बनाए रखना है, उनके निर्देशों पर हमें यहां शहीदों के कब्रिस्तान में ‘फ़ातिहा’ पढ़ने की अनुमति नहीं दी गई. जब मैंने कंट्रोल रूम से संपर्क किया और कहा कि मैं यहां आना चाहता हूं कुछ ही मिनटों में मेरे गेट के सामने बंकर लगा दिया गया और रात 12 बजे तक गेट नहीं खुला. उन्हें यह गलतफहमी है कि शहीदों की कब्रें यहां सिर्फ 13 जुलाई को ही होती हैं. 13 जुलाई नहीं 12, 14 दिसंबर, जनवरी को ही सही, शहीद यहां हैं. हम जब भी चाहेंगे, हम यहां आकर अपने शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित करेंगे.
‘मेरे गेट के सामने बंकर लगा दिया’
उमर ने पत्रकारों से कहा,’यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि जो लोग दावा करते हैं कि उनका जिम्मेदारी सिर्फ कानून-व्यवस्था बनाए रखना है, उनके निर्देशों पर हमें यहां शहीदों के कब्रिस्तान में ‘फ़ातिहा’ पढ़ने की अनुमति नहीं दी गई. जब मैंने कंट्रोल रूम से संपर्क किया और कहा कि मैं यहां आना चाहता हूं कुछ ही मिनटों में मेरे गेट के सामने बंकर लगा दिया गया और रात 12 बजे तक गेट नहीं खुला. उन्हें यह गलतफहमी है कि शहीदों की कब्रें यहां सिर्फ 13 जुलाई को ही होती हैं. 13 जुलाई नहीं 12, 14 दिसंबर, जनवरी को ही सही, शहीद यहां हैं. हम जब भी चाहेंगे, हम यहां आकर अपने शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित करेंगे.
कश्मीरी इतिहास दबाने की कोशिश
बिना किसी का नाम लिए उमर अब्दुल्ला ने कहा,’वे दावा करते हैं कि यह एक आजाद देश है लेकिन कभी-कभी उन्हें लगता है कि हम उनके गुलाम हैं. हम उन्हें बताना चाहते हैं कि हम उनके गुलाम नहीं हैं. हम अपने लोगों के गुलाम हैं.’ उन्होंने प्रतिबंधों को कश्मीरी इतिहास को दबाने की एक जानबूझकर की गई कोशिश बताते हुए कहा,’यह हमारे इतिहास को मिटाने और हमारी आवाज को दबाने की एक कोशिश है. मुख्यमंत्री होने के नाते, अगर मुझे अपने शहीदों को श्रद्धांजलि देने के लिए दीवारों पर चढ़ना पड़े, तो यह आम लोगों के लिए लोकतंत्र की स्थिति के बारे में क्या कहता है?.’
‘मुसलमान होने की वजह से हो रहा विरोध’
कल उमर ने ऐतिहासिक समानताएं बताते हुए 1931 के नरसंहार की तुलना जलियांवाला बाग हत्याकांड से की और शहीदों के चित्रण की आलोचना करते हुए कहा,’जिन लोगों ने अपनी जान कुर्बान दी, उन्होंने डोगरा शासन के तहत ब्रिटिश शासन के खिलाफ ऐसा किया. यह शर्म की बात है कि हमारे अधिकारों के लिए लड़ने वाले सच्चे नायकों को आज सिर्फ इसलिए खलनायक के तौर पर पेश किया जा रहा है क्योंकि वे मुसलमान थे.’
कल अधिकारियों ने श्रीनगर में पाबंदियां लगाई थीं, जिसमें राजनीतिक नेताओं को नजरबंद करना, दरवाजों पर ताला लगाना और सड़कों पर बैरिकेडिंग करना शामिल था, ताकि लोग और नेता शहीद के कब्रिस्तान तक न पहुंच सकें. श्रीनगर जिला प्रशासन ने 12 जुलाई 2025 को एक सार्वजनिक एडवाइजरी जारी की थी, जिसमें कानून-व्यवस्था की चिंताओं का हवाला देते हुए कब्रिस्तान में जाने की अनुमति देने से इनकार कर दिया गया था.
2019 में अनुच्छेद 370 के निरस्तीकरण के बाद 13 जुलाई को सार्वजनिक छुट्टी रद्द दी गई थी. इस कदम ने 1931 के शहीदों की स्मृति को लेकर तनाव बढ़ा दिया है, जिन्होंने डोगरा महाराजा हरि सिंह के निरंकुश शासन के खिलाफ प्रदर्शन किया था. अब्दुल्ला के कार्यों और बयानों ने शहीद दिवस के ऐतिहासिक महत्व को बहाल करने के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को रेखांकित किया है. उनकी सरकार ने उपराज्यपाल से औपचारिक रूप से 13 जुलाई को सार्वजनिक छूटी के रूप में बहाल करने का अनुरोध भी किया है.
