घाटी में औरतों से सड़कों पर रेप हुआ, बच्चों की आंख पर गोली मारी गई
11 मार्च को रिलीज हुई फिल्म द कश्मीर फाइल्स लगातार बॉक्स ऑफिस पर बड़े रिकॉर्ड बना रही है। फिल्म को इंटेंस और सभी तथ्यों को सामने रखकर बनाने में डायरेक्टर विवेक रंजन अग्निहोत्री और उनकी टीम की कड़ी मेहनत और घंटों की रिसर्च लगी है। फिल्म के राइटर और रिसर्चर सौरभ पांडे ने दैनिक भास्कर से खास बातचीत में फिल्म से जुड़े कुछ फैक्ट्स बताए…
लोगों की कहानियां सुनकर लगा कि मेरी सामने घटनाएं घट रही हैं
जब पढ़ता और लोगों से सुनता था कि डेढ़-दो साल के बच्चे की आंख पर बंदूक रखकर मार दिया, औरतों का खुली सड़क पर रेप किया, नदी में फेंक दिया, घर छोड़कर भागने के लिए मजबूर किया, चारों तरफ नारे लगाए गए। वहां के लोगों में दहशत भर दी गई और उस दहशत, डर के बीच जम्मू कैंप तक किस हालत में पहुंचे होंगे, अंदाजा लगा सकते हैं, लेकिन वहां पर किसी ने उनके लिए कुछ नहीं किया।
इन चीजों को कहने में घिन आती है। लोगों से यह सब सुनकर ऐसा लग रहा था कि मेरी आंखों के सामने वह सब कुछ हो रहा है और असहाय होकर सुन रहा हूं। अब चीजें बन गईं, तब मुझे अजीब-सी फीलिंग आती है। लगता है कि छोटा-सा कॉन्ट्रिब्यूट किया। शायद उस चीज को एक्नॉलेज मिले, उस चीज को लोग समझें और दोबारा ऐसा कुछ न हो। भगवान से यही प्रार्थना है कि ऐसा कभी दोबारा न हो।
कहानी लिखने बैठा, तब स्वर्ग की इमेज खराब दिखने लगी
बचपन में पढ़ा था कि कश्मीर धरती का स्वर्ग है। फिर पता लगा कि पूरा परसेप्शन ही गलत था। यह जो स्वर्ग है, वह तो नर्क से भी गंदा है। वहां पर नरसंहार हो रहा है, लोग मारे जा रहे हैं। कहानी लिखने बैठा, तब एक स्वर्ग की इमेज जो बनी थी, वह खराब हो गई। ऐसा लगा कि एक अलग इल्यूजन में जी रहा हूं। वहां का एक समाज जो सबसे शिक्षित वर्ग था, जो सबसे शांति से रहने वाला समाज था, उस समाज को वहां से प्रताड़ित करके भगा दिया गया और हम चुप थे। जब लोगों का इंटरव्यू करते थे, तब उनका और बच्चों का दर्द सुनना बड़ा मुश्किल होता था।
फिल्म में एक डायलॉग है- टूटे हुए लोग बोलते नहीं, उन्हें सुनना पड़ता है। यही उनकी हालत थी। कैंप में रहने वालों के बदन पर छाले पड़ गए थे। जो घरों में रहते थे, उनके बच्चे सड़कों पर सोने को मजबूर थे। भूखे रहे। यह सब लिखते समय ऐसा लग रहा था कि उनके साथ एक जिंदगी जी रहा हूं। अंदर से आवाज आती थी कि भगवान यह सब कभी किसी के साथ मत करना। यह नहीं होना चाहिए।
सारी चीजें न तो बोली जा सकती हैं और न ही दिखाई जा सकती हैं
फिल्म की एक समय-सीमा होती है। उसमें ही सब कुछ दिखाया जाना तय होता है। मैंने जितना पढ़ा, जितना रिसर्च किया, उस अंदाजे से बोल रहा हूं कि यह तो हमने 5-10% चीजें बोली हैं। 5% कहने का मतलब यह है कि कहानी तो 4-5 लोगों की ही दिखा सकते हैं, जबकि वहां से निकले तो लाखों लोग हैं। उन्हीं 4-5 लोगों को आधार बनाकर इमोशन को रिवील करते हैं। उसके बेसिस पर बोल रहा हूं।
खैर, वहां की सारी चीजें न तो बोली जा सकती हैं और न ही दिखाई जा सकती हैं, क्योंकि उसे बोलने मे भी शर्म आएगी और सुनने में भी शर्म आएगी। बेहतर है कि लोग जाकर उन चीजों के बारे में पढ़े, जो मौजूद हैं। जिन्होंने किया, उन्हें भी ग्लानि हो और जो पाप कर रखा है, उसका प्रायश्चित करें।