अखिलेश यादव और जयंत सिंह का ‘यूपी बदलो’ का नारा मोदी-योगी के ख़िलाफ़ कितना कामयाब होगा
समाजवादी पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव और राष्ट्रीय लोकदल अध्यक्ष चौधरी जयंत सिंह मंगलवार को एक साथ एक मंच पर आए.
मेरठ के दबथुवा में दोनों पार्टियों की संयुक्त सभा को नाम दिया गया ‘परिवर्तन रैली’. अखिलेश यादव और जयंत सिंह एक ही हेलिकॉप्टर से पहुँचे.
दोनों पार्टियों ने इस रैली के जरिए एकजुटता दिखाई. बड़ी भीड़ जुटाकर ताक़त दिखाई और विरोधियों को चुनौती भी दी. दूसरी तरफ, गोरखपुर की रैली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने समाजवादी पार्टी का नाम लिए बिना उस पर तीखा हमला बोला. उनके आतंकवादियों पर मेहरबान होने का आरोप लगाते हुए कहा कि ‘लाल टोपी वाले यूपी के लिए रेड अलर्ट हैं यानि ख़तरे की घंटी हैं.’
समाजवादी पार्टी भी दबथुआ परिवर्तन रैली के लिए समर्थकों में जोश भरती रही और रैली में दिखी भीड़ को पार्टी समर्थकों के इसी जोश का नतीजा बताया.
इसके पहले, अखिलेश यादव और जयंत चौधरी ने नवंबर में मुलाक़ात की. उस मुलाक़ात के बाद जयंत चौधरी ने “बढ़ते क़दम” कहते हुए अपनी तस्वीर शेयर की थी, जिसके जवाब में अखिलेश यादव ने लिखा था, “जयंत चौधरी के साथ बदलाव की ओर.”
ज़ाहिर है, दोनों नेता रिश्तों में गर्माहट और राजनीतिक एकता दिखाने का लगातार प्रयास कर रहे हैं और गठबंधन को ज़मीन पर उतारने की कोशिश में लगे हुए हैं.
कितने सीटों पर है आरएलडी और समाजवादी पार्टी का समझौता?
हाल में मीडिया में समाजवादी पार्टी और आरएलडी के गठबंधन को लेकर अफ़वाहों का बाज़ार गर्म था और सीटों के बंटवारे को लेकर नोकझोंक की ख़बरें आ रही थीं.
इस ‘परिवर्तन संदेश रैली’ का एक मक़सद उन अफ़वाहों और अटकलों पर रोक लगाना भी रहा. तीन कृषि क़ानूनों के कारण पश्चिम उत्तर प्रदेश के जाट बहुल इलाक़े में राजनीतिक ज़मीन तैयार होने के बाद आरएलडी और समाजवादी पार्टी दोनों ही अपने पक्ष में बने राजनीतिक माहौल को क़ायम रखना चाहती हैं.
लखनऊ यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर डॉक्टर सुधीर पंवार 2017 में समाजवादी पार्टी के टिकट पर पश्चिम उत्तर प्रदेश की थाना भवन सीट से विधान सभा चुनाव लड़ चुके हैं.
डॉक्टर पंवार कहते हैं, “सीटों और उम्मीदवारों का एलान आने वाले समय में होगा. क़रीब-क़रीब सीटें तय हो चुकी हैं. लेकिन उनका एलान समय देख कर और स्ट्रैटेजी के साथ होगा. अगर अभी से एलान कर देंगे तो फिर भाजपा उस हिसाब से अपनी रणनीति तैयार करने लगेगी.”
सीटों के समझौते के बारे में आरएलडी के प्रदेश प्रवक्ता इस्लाम चौधरी का कहना है, “सीटों पर सहमति बन चुकी है और वहां कोई मतभेद नहीं है.”
पश्चिम उत्तर प्रदेश की राजनीति पर लंबे समय से नज़र बनाए हुए नवभारत टाइम्स के वरिष्ठ पत्रकार शादाब रिज़वी का कहना है, “गठबंधन फ़ाइनल है. पश्चिम की 36 सीटों पर सहमति बनी है और इसमें एक दो सीटें कम ज़्यादा हो सकती हैं. सीटों में शायद नाम नहीं खुलेंगे, लेकिन सीटों की संख्या खुल जाये. इनमे से कुछ सीटों पर यह हो सकता है कि सिंबल मेरा, कैंडिडेट तुम्हारा की बात तय हो गई हो. दोनों पार्टी दो-तीन सीटों पर ऐसा भी कर सकती है.”
दंगों की परछाई अब भी बरक़रार?
सामाजिक एकता को फिर से क़ायम करने के लिए आरएलडी ने 60 से अधिक ज़िलों में “भाईचारी एकता ज़िंदाबाद” सम्मलेन किया है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इन सम्मेलनों में भारी तादात में लोग शामिल भी हुए.
रिष्ठ पत्रकार शादाब रिज़वी कहते हैं, “मुज़फ़्फ़रनगर दंगों के बाद जो यहाँ का ताना बाना टूटा था, उसे जोड़ने की कोशिश अजित सिंह ने ही कर दी थी. उन्होंने जगह-जगह भाईचारा सम्मलेन भी किया था. 2019 के लोकसभा चुनाव में चौधरी जयंत सिंह और अजीत सिंह ने चुनाव अच्छा लड़ा लेकिन वो दोनों हार गए.”
वो आगे कहते हैं, “किसान आंदोलन इनके लिए सियासी संजीवनी बना. पश्चिम के किसान आंदोलन में अधिकतम भागीदारी जाटों की रहती है. साथ ही अजित सिंह की कोरोना से मौत की सहानुभूति भी है, और आजकल जाट दिल्ली में चौधरियों की चौधराहट वापस मिलने की बात भी कर रहे हैं. अजित सिंह और जयंत सिंह के हारने के बाद जाट अपने आप को दिल्ली की सियासत में कमज़ोर महसूस करते थे. इसीलिए यहाँ पर जाटों के लामबंद होने से आरएलडी की स्थिति पहले से मज़बूत हो रही है.”
समाजवादी पार्टी से जुड़े हुए डॉक्टर सुधीर पंवार का कहना है कि जाटों और मुसलमानों में नई एकता की वजह सामाजिक नहीं बल्कि आर्थिक है.
उनके मुताबिक़, “हम लोग उसे हिन्दू-मुस्लिम एकता कह कर उसका सिम्प्लिफ़िकेशन कर रहे हैं. आज सरकार की किसानों, मज़दूरों और ग़रीबों के प्रति नीतियों की वजह से एक नई सामाजिक एकता देखने को मिल रही है. जाट मुस्लिम एकता जो आर्थिक कारणों से बनी एकता है, उसे हम भाजपा के पक्ष में मज़बूत कर रहे हैं. रूरल इकोनॉमी (ग्रामीण अर्थव्यवस्था) के संकट ने लोगों को साथ किया. हक़ीक़त यह है और दिखाया यह जा रहा है कि मीटिंग में जाट-मुसलमान साथ बैठने लगे. उनमें धर्मगुरुओं ने समझौता थोड़े ही न कराया है. दोनों के साथ रहने की एक आर्थिक वजह है.”
श्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट और मुसलमानों से जुड़ी राजनीति मेरठ, बागपत, बुलंदशहर, ग़ाज़ियाबाद, गौतम बुद्ध नगर, हापुड़, शामली, मुज़फ़्फ़रनगर, सहारनपुर, मुरादाबाद, बिजनौर, अमरोहा, संभल, आगरा, फ़िरोज़ाबाद, मथुरा जैसे ज़िलों में देखने को मिलती है.
अक्टूबर में इकोनॉमिक टाइम्स की छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक़ पश्चिम उत्तर प्रदेश के 14 ज़िलों में लगभग 71 विधानसभा सीटें हैं, जिसमें से 2017 में भाजपा ने 51 सीटें जीती थीं. पश्चिम में इतनी भारी संख्या में सीटों ने भाजपा को भारी बहुमत दिलाने में अहम भूमिका निभाई थी. इस रिपोर्ट के अनुसार उत्तर प्रदेश में जाट बिरादरी के कुल 13 विधायक हैं जिससे जाटों का भाजपा को समर्थन साफ़ ज़ाहिर है.
पश्चिम उत्तर प्रदेश में सपा और आरएलडी सात प्रतिशत जाट वोट और 29 प्रतिशत मुसलमान वोट के एक साथ होने की उम्मीद लगा रही है. लेकिन अब कृषि क़ानूनों की वापसी के बाद सरकार से नाराज़ जाट वोटरों को क्या भाजपा 2022 में फिर से अपने साथ जोड़ने में कामयाब होगी?